वो अकेली नहीं रह पाती थी ....
माँ-पा की लाड़ली बेटी थी न वो तो, पूजा, बचपन से ही बहुत नाज़ों से पली-बड़ी थी वो, बिन माँगे उसकी सभी माँगे पूरी की जाती थी। कभी किसी भी चीज़ के लिए उसे कभी तरसना नहीं पड़ा। कोई नया खिलौना आता बाज़ार में तो पूजा के पास वो जरूर होता। उसके खिलौने से खेलने की वज़ह से उसके सभी संगी-साथी हुआ करते थे। दिन भर तो स्कूल और खेल कूद में समय बिता कर वो ख़ुश रहती थी पर जैसे-जैसे शाम होने लगती वो उदास होने लगती क्यूँकि कोई साथी पास नहीं होता था उस समय, तब वो ख़ुद को बहुत अकेली समझती थी। ऐसे में उसे लगता था कि कोई हो उसके भी साथ जो रात में भी खेलें, वो मिलकर रात भर मस्ती करें। जैसे-जैसे पूजा बड़ी होने लगी उसका अकेलापन भी उसके साथ बड़ा होने लगा। एक वक़्त ऐसा भी आया जब उसे अपने ही खिलौने अच्छे नहीं लगते थे।
पूजा अकसर स्कूल से आते हुए मंदिर के बगल में एक चौबारा बना हुआ था वहाँ थोड़ी देर रुक कर आती थी। अपने दिन भर की सभी बातें पूजा वहाँ चौबारे पर बैठ कर दोहराया करती थी। अपने अकेलेपन की भी ख़ुद से ख़ूब शिकायतें किया करती थी। इस बात से बिल्कुल अंजान थी वो कि जहाँ वो बैठा करती थी वहाँ पास ही पीपल का पेड़ भी था।
पूजा को वहाँ बैठना धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा, अब वो सारी बातें वहाँ बैठ कर ही करने लगी। अपने रोज़-मर्रा की बातें भी। अकसर शाम होते-होते उदासी में कहाँ करती थी कि कोई भी नहीं होता मुझसे मेरी ही बात करने को। उसके स्वभाव में भी बदलाव आने लगा। घर वालों से भी कटी-कटी सी रहने लगी। स्कूल में भी कम ही ध्यान दे पा रही थी। छोटी-छोटी बात पर माँ से लड़ पड़ती थी, कभी पसंद के कपड़ों के लिए तो कभी पसंद के खाने के लिए। आजकल तो माँ को उल्टा जवाब भी देना सीख गई थी। पा का भी कोई डर नहीं रह गया था अब उनकी किसी चीज़ से लाये ख़ुश नहीं होती थी। पहले जब वो कुछ भी लाते थे तो ख़ुश होकर उनसे लिपट जाती थी, आजकल तो एक नज़र भर भी नहीं देखती थी पूजा उनकी लायी किसी चीज़ को, पता नहीं क्या हो गया था उसे।
गर्मियों की छुट्टियाँ भी आने वाली थी, घर वाले कब से कह चल कही घूम आते है पर जैसे तो पूजा का कहीं भी जाने का मन ही न हो। ऐसी ही एक उदास शाम वो चौबारे पर बैठी थी और बस रोये चली जा रही थी, उस दिन वो इतना रो ली कि शायद ही बचपन से लेकर अब तक इतना रोई हो। रोते-रोते वो वहीं सो गई। शाम भी ढ़लने को थी, अचानक उसके सिर पर किसी ने हाथ फेरा वो झट से उठी और देखा कि उससे उम्र में थोड़ी ही बड़ी एक लड़की उसकी बगल में बैठी थी। पूजा हड़बड़ा कर उठी क्यूँकि उसके लिए वो अनजान थी, उसने कभी उसे अपने घर के आस-पास भी नहीं देखा था। इससे पहले पूजा उससे कुछ पूछ पाती वो ख़ुद ही बोल पड़ी मेरा नाम साक्षी है। मैं यहीं पास में रहती हूँ तुम्हें उदास देखा तो चली आयी, क्या तुम मेरी सहेली बनोगी? पूजा को तो माने उसका खोया संसार मिल गया हो। इससे ज्यादा तो उसकी कोई और इच्छा भी नहीं थी, वो झट से हाँ बोली साक्षी को।
दोनों बहुत ख़ुश हुए और उसी खुशी में घर चल दिये। रास्ते में साक्षी ने कहाँ कि माँ को मत बताना कि तुम मुझे घर लायी हो नहीं तो क्या पता वो नाराज़ हो जाये और तुम्हें मेरे साथ खेलने भी न दे। पूजा बोली हाँ ठीक है जैसा तुम बोलो। घर आते ही साक्षी बोली कि मैं ऊपर जाती हूँ तुम्हारे कमरे में तुम खाना खा कर आ जाना।
पूजा ने झट पट खाना खाया और सीधा ऊपर अपने कमरे में पहुँच गयी। फ़िर रात भर उससे साक्षी से खूब बातें की। सुबह पूजा को स्कूल जाना था, अब वो चिंता में थी कि पूरा दिन साक्षी घर पर क्या करेगी अकेली (पूजा भी भूल गयी कि साक्षी उसका ही तो अकेलापन दूर करने आयी है, ख़ुद तो वो जाने कितने ही बरसों से अकेली ही रह रही थी)। यहीं सोच कर उसने साक्षी से पूछा स्कूल चलोगी मेरे साथ। साक्षी भी बोली चलो ठीक है। चलते है तुम बाहर चलो मैं भी बाहर ही मिलती हूँ। फ़िर दोनों एक साथ स्कूल के लिए निकल पड़े। वो रास्ते भर इधर-उधर की बातें करते रहें। साक्षी ने उसे बताया कि माँ के पास मेरी और दो बहनें थी तो वो मुझे बहुत छोटी उम्र में ही मंदिर के पास छोड़ गई थी तब से मैं वहीं रहती हूँ।
यूँही बातें करते-करते स्कूल भी आ गया था। अब क्लास में कैसे ले जाये उसे, साक्षी बोली चिंता मत करो इसका भी इलाज़ है तुम चलो मैं आती हूँ, 5 मिनट बाद ही साक्षी भी क्लास में आ गयी। पूजा की सिट्टी पिट्टी गुम की बच्चें शिकायत लगा देंगें उसकी मैडम से पर ये क्या किसी बच्चें ने कुछ कहा ही नहीं। पूजा ने साक्षी को अपने ही साथ ख़ाली सीट पर बैठा लिया। क्लास ख़त्म होते ही उसने साक्षी से पूछा कि ये सब कैसे किया। साक्षी हँस कर बोली तुम्हारे लिए जादू सीखा है बस अब तुम्हें ही नज़र आऊँगी मैं। अब हम ख़ूब खेल सकेंगें और बातें कर सकेंगें। ऐसी ही बातें करते-करते वो घर पहुँचे।
माँ ने खाने के लिये आवाज़ लगाई, पूजा बोली साक्षी तुम भी चलो न साथ, साक्षी ने कहा नहीं-नहीं माँ परेशान हो जायेगी, तुम जाओ और खा कर आओ। पूजा खाना खा कर सीधा अपने कमरे में पहुँची। थोड़ा आराम करके साक्षी ने कहा कि चलो अब स्कूल का काम करते है। साक्षी की मदद से पूजा ने स्कूल का काम भी जल्द कर लिया। फ़िर रात को दोनों आराम से सोई। पूजा का मन अब पढ़ाई में लगने लगा था। अब वो चौबारे पर कम अपने घर पर ज्यादा रहा करती थी।
घर पर सब उसके बदले व्यवहार को देख कर ख़ुश हो रहें थे। कल से स्कूल में छुट्टियाँ शुरू होने वाली थी। रात भर में सारी पैकिंग करनी थी। नानी के घर जो जाना था। उसकी नानी का घर हरिद्वार में था। पूजा ख़ुशी ख़ुशी राज़ी हो गई जाने के लिए। पैकिंग के लिए उसने बैग भी निकाल लिया और साक्षी की मदद से कपड़े भी सारे रख लिए। दोनों बहुत खुश थे। थोड़ी ही देर में सारा काम होने पर साक्षी ने पूजा से पूछा मेरा एक काम करोगी? पूजा बोली ये भी कोई पूछने की बात है बताओ क्या करना है, साक्षी ने उसे एक लाल कपड़े में बँधी पोटली दे दी और बोला कि इसे जब नानी के घर जाओगी तब गंगा जी में बहा देना। पूजा ने पूछा क्या है इसमें बताओ तो, साक्षी ने कहा बस तुम ये काम कर देना बिना कुछ कहे किसी से और बिना और कोई सवाल करें। हाँ बाबा कर दूँगी, पूजा बोली तुम्हारे लिए भी कपड़े रख लिए है तो परेशान मत होना पता है मुझे कि तुम मंदिर से कुछ लायी नहीं थी। तब से मेरे ही तो पहन रहीं हो। साक्षी बोली नहीं अब तुम ख़ुद आराम से रह सकती हो और बड़ी भी हो गयी हो अच्छा बुरा समझ सकती हो, अकेले उदास भी नहीं होती हो इसलिए तुम्हें अब मेरी जरूरत नहीं है। पूजा नहीं मानी बोली कि नहीं चलना होगा बस बात ख़त्म। उसकी ज़िद के आगे किसी की नहीं चलती तो साक्षी की क्या बात थी।
सब तैयार हुए और घर से गाड़ी में बैठ गए। पूजा और साक्षी पीछे बैठ गए और माँ-पा आगे। पूजा धीरे-धीरे पूरे रास्ते साक्षी से बात करती रही। उसके गोद में उसकी बचपन वाली गुड़िया भी थी जिसे वो अकसर साथ लेकर जाया करती थी अपनी हर छुट्टी में नानी के घर। माँ-पा को लगता रहा कि गुड़िया से ही बातें कर रही है पूजा।
यूँही बातें करते 3-4 घंटों का सफ़र बहुत जल्दी कट गया। नानी का घर आ गया, नानी के घर रहने में आनन्द इसलिए ज्यादा आता था क्यूँकि गंगा के किनारे ही बना हुआ था। आरती से पहले होती हलचल बता देती थी कि बस अब कुछ ही देर में आरती होने वाली है। अकसर पूजा और उसके आस पास के बच्चें सुबह-शाम की आरती के लिए जाया करते थे। पूजा ने साक्षी को भी मना लिया अपने साथ चलने को आरती में, शाम को तैयार होकर चलने लगें तो साक्षी ने याद करवायी वो लाल पोटली, पूजा बोली रख ली है चिंता न करो।
दोनों चल पड़ी आरती के लिए। अभी साँझ होने में समय था। साक्षी ने कहा कि पहले ये लाल पोटली अर्पित कर देते है फ़िर आरती में चलेंगें। दोनों तट के नज़दीक पहुँचे और पूजा ने लाल पोटली को गंगा जी में अर्पित कर दिया और साक्षी से कहा अब ख़ुश हो ना, चलो अब आरती के लिए चलते है।
संध्या की आरती देखने वाली होती है गंगा मैया की, हर तरफ़ दीप ही दीप होते है, कहीं शंख की आवाज़ तो कहीं मंदिर की घंटियों का सुर। पूजा जाने कितनी देर तक मैया के गुणगान करती रहीं, देर तक कोई ज़वाब नहीं मिला तो पलट कर देखा कि साक्षी भी कहीं नहीं दिख रही थी। आरती के समय तट पर बहुत भीड़ होती है अकसर जिसे जहाँ जगह मिलती है वहीं बैठ जाता है। पूजा ने पहले ही कहा था साक्षी से कि अगर ऐसा हो तो ऊपर जूते के स्टाल पर मिलना आरती के बाद। पूजा पास ही जगह देख कर निश्चिंत होकर बैठ गयी। क़रीब आधे घंटे बाद वो उठी, तब तक भीड़ भी छट चुकी थी। वो तेज़ी से जूते के स्टाल पर पहुँची तो वहाँ साक्षी को देख कर उसकी जान में जान आयी।
दोनों ने बाज़ार का रुख किया और टहलते-टहलते घर का रास्ता पकड़ लिया। रास्ते में साक्षी ने पूजा को शुक्रिया भी कहा, बहुत पूछने पर पूजा के साक्षी ने कहा कि आज कई सालों के बाद उसे मुक्ति मिल गयी। पूजा हैरानी से उसे बस देखती रही एकटक कि ये क्या बोले चली जा रही है। पूजा को साक्षी ने बताया कि बचपन में जब माँ उसे मंदिर के बाहर छोड़ गई थी उन दिनों बहुत ठंडी थी और उस ठंड ने उसकी जान ले ली। तब से लेकर आज तक पीपल के पेड़ पर डेरा जमाए हुए रह रही थी, तुम्हें रोते देखा तो लगा कही दुःखी होकर तुम जाने अनजाने कोई गलती न कर बैठो तो तुम्हारी सहेली बन तुम्हें जीने की वज़ह दे दी। अब तुम ख़ुद पर पहले से ज्यादा भरोसा करती हो, सबका कहा भी मानती हो और क्या चाहिए मुझे, मेरा आना सफ़ल हुआ इसलिए तुम्हारे हाथों मुक्ति पा कर मैं भी ऋण मुक्त हो जाऊँगी। बस अब तुम मुझे जाने दो, पूजा कुछ समझ ही न पाई कि ये सब क्या हो रहा है, ख़ुद को दुःखी करें कि साक्षी जा रही है या इस बात से ख़ुश हो कि उसने उसमें विश्वास जगाया है।
साक्षी ने उसे बहुत प्यार से सब समझाया और कहा कि तुमसे दूर नहीं हूँ मैं, जब भी तुम्हें मेरी जरूरत हो पुकार लेना तुम्हारे साथ ही खड़ी मिलूँगी मैं। पूजा आज अकेले होकर भी अकेली नहीं थी। साक्षी का प्यार, उसका पूजा पर भरोसा उसे आगे बढ़ने का हौसला दे गया। भारी मन से पूजा ने उसे विदा किया। खुद को बहुत संभाला पूजा ने, धीरे-धीरे समय के साथ पूजा भी बदल गयी अब वो अकेले होकर भी अकेली रह पाती है।
पूनम तनेजा (दिल्ली)