हिन्दी (शीर्षक)
प्रवाहित अन्तर्-मनस्-सिन्धु,
अगणित रत्नों का केन्द्रभू, भान नही किन्तु,
सम्भवतः छिड़क लूँ, विशुद्ध हिन्दी-जल बिन्दु-बिन्दु,
तन पर, और स्वयं को पावन कर लूँ।
तो मै भी उर-अन्तर् के स्खलित भावों को
सार्थक कोई आकार दे दूँ।
और कण्ठ-प्रदेश में देवभाषा-दुहिता की ओजस्वी
-वाणी की समृद्धि भर लूँ।
भग्न अशुद्ध शब्दों की दे तिलांजलि,
तत्सम-शब्द रुपी इष्टका-प्राचुर्य से चिरकालिक,
हिन्द-प्रासाद गढ़ लूँ।
हाँ, ज्ञात है, उन शत्रुओं का भी,
जो हिन्द-प्रासाद के रक्षक बनकर,
भग्नकर्ताओं में सर्वोपरि हैं।
आहत है इसी से पूज्या माँ हिन्दी,
उसी के लाल किस लोभ मेँ बने अरि हैं??
किन्तु ठहरो, मै भी तनिक प्रयास कर लूँ।
सभ्यता, संस्कृति, इतिहास के सौन्दर्य से,
परिपूरित उस विशाल, कोमल हृदया के,
चरण पखार आशीष ले लूँ।
फिर निकलूँ उस पथ पर, जिस पर,
महान-हिन्द-सपूतों के चिह्न अंकित,
कर अनुसरण उनका, नित-निरन्तर बढ़ती चलूँ।
श्रांत होकर न बैठूँ किंचित,
और निज-सामर्थ्य को झोंककर,
लघु ही सही एक छिद्र तो कर लूँ।
जिसमें से माँ हिन्दी की वात्सल्य धारा,
मुझे भिगोकर निकलेगी।
और श्वास-श्वास मेरे तीक्ष्ण प्रयास पर,
प्रसन्न हो, मुझे अंक में भर लेगी।
मै ये सुंदरतम स्वप्न-विहार तो कर लूँ,
यथार्थ में स्वप्न साकार तो कर लूँ,
अभी बीज हूँ, अपना विकास तो कर लूँ।
डॉ.राजकुमारी (कानपुर)