"चार लोग" संपादकीय
मंज़िल की चाहत में बढ़ते हुए मेरे कदमो में बंधन लगाने
देखो फिर आ गए वो "चार लोग"
मुझे अपने भ्रमजाल में फ़साने
मेरे नन्हे पंखों की ऊँची उड़ान में रोक लगाने
देखो फिर आ गए वो "चार लोग"
समाज के तौर-तरीके सिखाने
मेरे आत्मविश्वास को मेरा घमंड बताने
देखो फिर आ गए वो "चार लोग"
मेरे व्यक्तित्व को ठेश पहुँचाने
मेरे मजबूत इरादो की नींव डगमगाने
देखो फिर आ गए वो "चार लोग"
मेरे अन्तर्मन को छति पहुँचाने
मेरी थोड़ी अलग सोंच को गलत ठहराने
देखो फिर आ गए वो "चार लोग"
मुझे अपनी ही भीड़ का हिस्सा बनाने
अदिति शुक्ला (कानपुर)