शरद पू्णिमा एवं कृष्ण महारास-स्मृति तिवारी


शरद पू्णिमा एवं कृष्ण महारास!!!


चाँदनी ये रात है,
कृष्ण का भी साथ है ।
राधा मन झूमे देखो,
आज महारास है !


मन में बसे जिनके श्याम,
अधरों पे बस उनका नाम ।
नैनों में मूरत बसी,
कैसी अज़ब है घड़ी ।
कुंज की गली-गली
तारों से सजने लगी,
गोपियों संग नंदलाल
झूमते जो आज हैं ।
आज महारास है !


कितना मनोहर है रूप,
रजनी में खिली हो ज्यों धूप ।
प्रीत है साग़र से गहरी,
नाता जैसे एक पहेली ।
पवन की बयार में,
राधिका के प्यार में ।
हर एक पुकार में,
कान्हा का आभास है ।
आज महारास है !


कहते हैं एक बार राधा प्यारी माधव से बड़ी नाराज़ हो गईं, क्योंकि उन्हें लगता था कि वो किसना को सबसे ज़्यादा प्रेम करती हैं और कन्हैया उन्हें अन्य गोपियों के समकक्ष ही रखते हैं, आख़िर ऐसा क्यों?
जब राधा रानी ने यह शिकायत कान्हा से की तो मंद मुस्कान के साथ मुरलीधर बोले कि "राधे! दुःखी न हो। इस शरद पूर्णिमा मैं सिर्फ तुम्हारे साथ ही रासलीला खेलूँगा"।
बस फिर क्या था! राधिका का उत्साह भी पूर्णिमा के चंद्र के समान चरम पर दैदीप्तयमान था और वो घड़ी भी आई जब शरद ऋतु की मंद बयार में उज्ज्वल चाँद रात्रि में राधिका रासलीला को पहुँची। पर ये क्या? एकाएक राधे ने देखा कि सभी गोपियाँ भी पहले से ही मौजूद थीं वहां निधिवन में । किंतु राधिका का मन अभी भी इस गर्व से आह्लादित था कि माधव तो सिर्फ उन्हीं के साथ रास करेंगे ।
धीरे-धीरे मध्यरात्रि का वो समय भी आया जब कृष्ण ने यमुना के तट पर क्लीं बीजमंत्र की ध्वनि से पूर्ण बंशी बजाई। चंद्रमंडल अखंड था एवं चाँदनी के प्रभाव से संपूर्ण परिवेश अनुराग की लालिमा से रंगता सा जा रहा था। राधिका ने भी कृष्ण के साथ नृत्य प्रारम्भ किया किंतु शीघ्र ही उन्होंने देखा वह अकेली नहीं थी वहाँ जिन्हें माधव जा सानिध्य प्राप्त था, वहाँ तो हर गोपी के साथ गोविंद थे ।
यह अलौकिक दृश्य देख राधा अचंभित थीं, और जब उन्होंने मुरली मनोहर से इस मायाजाल के बारे में पूछा तो कृष्ण पुनः मुस्काये और उन्होंने राधिका से कहा कि राधे! मेरे लिये गोपियों का प्रेम विशुद्ध है और शृंगार और रस से पूर्ण होते हुए भी इस स्थूल जगत के प्रेम व वासना से मुक्त है। इसलिए तो मेरे लिये सभी का प्रेमभाव समान है और मैं सिर्फ उसी प्रेम का बंधक हूँ कोई और नहीं ।
इस प्रकार महारास सिर्फ नृत्य क्रीड़ा अथवा रास लीला नहीं अपितु प्रेम के अद्वैत स्वरुप के एकीकार का क्षण है जहाँ भगवान भक्त की प्रीत और त्याग के ऋणी होकर स्वयं उनके बीच आते हैं और उनका सानिध्य प्राप्त करते हैं ।सोलह कलाओं से परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण को आनंद प्रधान माना जाता है। उनके आनंद भाव का पूर्ण विकास उनकी मधुर रस लीला में हुआ है। और लौकिकता से परे निकल आनंद की वास्तविक अनुभूति को पाना ही "महारास" है ।


स्मृति तिवारी


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